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Monday 30 April 2012

इधर घोटाला है...


इधर घोटाला है, देखिए उधर घोटाला है,
राजनीति के दलदल में सबका मुँह काला है।

बातें हैं आदर्शों की पर करनी बिल्कुल उल्टी,
उनका यह अंदाज़ सभी का देखा- भाला है।

जो आता है फँस जाता है, स्वारथ के धागे में,
राजनीति है या कोई मकड़ी का जाला है।

पंचम सुर में झूठा गाए, बढ़चढ़कर इतराए,
सच के मुँह पर लगा हुआ अब तक इक ताला है।

गाँधी तू भी रोता होगा देश की इस हालत पर,
आखिर इसके सपनों को तूने भी पाला है।

सच कहने की सज़ा अगर दो, हँसकर मैं सह लूँगा
युग का हर सुकरात ज़हर का पीता प्याला है।
                                               - दिनेश गौतम

Thursday 19 April 2012

इक दिया जलता रहा...



याद के शीशे  में   चेहरा,    तेरा ही ढलता रहा,
मैं कि जैसे  पाँव नंगे,     आग पर चलता रहा।

जानता था वह नहीं   आएगा फिर से लौटकर,
फिर भी झूठी आस लेकर, खुद को मैं छलता रहा।

तेरी यादों ने बनाया इक अजब सा कारवाँ,
जब खयालों का मेरे  इक काफिला चलता रहा।

यूँ तो टूटा ही किए थे    ख़्वाब मेरे फिर भला,
एक सपना तुझको लेकर , दिल में क्यूँ पलता रहा?

रोक पाया वह न मुझको, उसको है  इसका मलाल,
आँसुओं के घूँट पीकर     हाथ बस मलता रहा।

मानता हूँ तेरे बँगले      में  ग़ज़ब थी रौशनी,
पर मेरे आँगन में भी तो,   इक दिया जलता रहा।
                                               - दिनेश गौतम

Wednesday 11 April 2012

ग़ज़ल - देवता नहीं है...


बस इसलिए कि तेरा कोई वास्ता नहीं है,
तू हादसे को कहता है, हादसा नहीं है।

होती ही जा रही है, दिल की दरार गहरी,
इस बात का तुझे क्या, कोई पता नहीं है?

इंसानियत से इन्सां, बनता है देवता भी,
इंसान जो नहीं है, वह देवता नहीं है।

लाखों में एक भी तू, ऐसा मुझे बता दे,
अनजान हो जो दुख से, ग़म से भरा नहीं है।

माना कि उससे मेरी, कुछ दूरियाँ बढ़ी हैं,
पर दिल ये कह रहा है, वो बेवफा नहीं है।

मुझको न इतना तड़पा, नज़रें न फेर मुझसे,
माना भला नहीं पर, ये दिल बुरा नहीं है।

तेरी भी मैली चादर, मेरी भी मैली चादर,
इस दाग़ से यहाँ पर, कोई बचा नहीं है।
                                                    - दिनेश गौतम.

Sunday 1 April 2012

तेरा प्यार नहीं मिल पाया।

कुछ युवा साथियों के द्वारा लगातार मेरी प्रेम कविताओं को ब्लाग पर पोस्ट करने का आग्रह किया जा रहा है उनके लिए प्रस्तुत है मेरी यह ‘गीतिका’, आप भी आनंद लें।

सब कुछ मिला यहाँ पर मुझको, बिन माँगे यूँ अनायास ही
लेकिन मेरे पागल मन को, तेरा प्यार नहीं मिल पाया।

तेरे नयन की ‘कारा’ होती, हो जाता मन बंदी मेरा,
हाय कि मुझको ऐसा कोई, कारागार नहीं मिल पाया।

तेरे चरण चूमकर मेरा आँगन उपकृत हो जाता पर,
मेरे आँगन की मिट्टी को, यह उपहार नहीं मिल पाया।

पास खड़े थे हम - तुम दोनों, एक मौन था फिर भी लेकिन
मन की बात तुम्हें मैं कहता, वह अधिकार नहीं मिल पाया।

स्वप्न बेचारे रहे अधूरे- ‘मिट्टी के अधबने खिलौने’,
उनको तेरे सुघड़ हाथ से , रूपाकार नहीं मिल पाया।

रंग भरे इस जग ने सबको, बाहों में भर - भर कर भेंटा,
मैं शापित हूँ शायद मुझको, यह संसार नहीं मिल पाया।
- दिनेश गौतम