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Wednesday 14 November 2012

दीप जलाना होगा...



घना अंधेरा है अब कोई दीप जलाना होगा,
दूर सवेरा है अब कोई दीप जलाना होगा।

कलह - क्लेश की ज्वाला जलती, दिखती है घर-घर में,
जाग रही शैतानी ताकत लोगों के अंतर में।
तम ने घेरा है अब कोई दीप जलाना होगा...

अंतःद्वंद्वों के बीहड़ में भटक रहा हर मन है,
एक व्यक्ति के कई रूप हैं, दुहरा हर जीवन है।
अजब ये फेरा है अब कोई दीप जलाना होगा।....

खंडित एक पत्थर रक्खा है, मंदिर के कोने में,
संशय सा होता है अब तो ईश्वर के होने में।
संदेह घनेरा है अब कोई दीप जलाना होगा।...

अपने कंधे पर हों जैसे अपना ही शव लादे,
लुटे - लुटे से घूम रहे हम पीड़ा के शहजा़दे।
ये वक्त लुटेरा है अब कोइ दीप जलाना होगा।...

सपनों की उजड़ी बस्ती में भटकें हम दीवाने,
ढही हुई है दरो-दीवारें सभी तरफ वीराने।
उजड़ा ये डेरा है अब कोई दीप जलाना होगा।...

                                                                   - दिनेश गौतम


Thursday 1 November 2012

छत्तीसगढ़-दर्शन


(आज छत्तीसगढ़ का स्थापना दिवस है।  हरे भरे और हर दृष्टि से संपन्न इस राज्य में पर्यटन की अपार संभावनाएँ हैं। इसके विभिन्न महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थलों को लेकर मैंने एक कविता लिखी थी “छत्तीसगढ़ दर्शन” इस कविता को राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद ने अपनी पत्रिका बालमित्र में पहली बार अक्टूबर 2007 के अंक में प्रकाशित कर 2008 से कक्षा 8वीं की हिंदी भाषा की पाठ्यपुस्तक भारती में सम्मिलित किया है। तब से छत्तीसगढ़ के बच्चे  और शिक्षक इसे पढ़ते आ रहे हैं। आज यह कविता अपने फेसबुक के मित्रों के लिए खास तौर से... )


अपना प्रदेश देखो, कितना विशेष देखो,
आओ-आओ घूमो यहाँ ,खुशियों से झूमो यहाँ।
         रायपुर की क्या सानी? अपनी है राजधानी,
         ऊँचे-ऊँचे हैं मकान, यहाँ की निराली शान।।


“कोरबा” की बिजली हम सब को  मिली ।
“देवभोग” का है मान, हीरे की जहाँ खदान,
         लोहे की ढलाई देखो, देखो जी भिलाई देखो,
         गूँजे जहाँ सुर-ताल, खैरागढ़ बेमिसाल।।


“राजीव लोचन” यहाँ, रम जाए मन जहाँ,
 तीरथ में अग्रगण्य, देखो-देखो  “चम्पारण्य”
         गूँजे जहाँ सत्यनाम, “गिरौदपुरी” है धाम,
         कबिरा की सुनो बानी, “दामाखेड़ा” की जुबानी।।


महानदी धार देखो, “सिरपुर” औ “मल्हार” देखो,
“डोंगरगढ़ बमलाई देखो, “रतनपुर महमाई” देखो।।
           देवी “बेमेतरा” वाली, देखो-देखो “भद्रकाली”
      मंदिर एकमेव देखो, देखो “भोरमदेव” देखो।।

देखो ऊँचा “मैनपाट”, बड़े ही कठिन घाट,
तिब्बती मकान देखो, कितनी है शान देखो।।
“बस्तर” के वन देखो, वहाँ भोलापन देखो,
     ऊँचे-ऊँचे, झाड़ देखो, नदी और पहाड़ देखो।।


झरने हैं झर-झर,  गुफा है “कुटुमसर”,
“तीरथगढ़ प्रपात” देखो , “दंतेश्वरी मात” देखो।।
   अपना प्रदेश है ये, कितना विशेष है ये,
              सबका दुलारा है ये, सच बड़ा प्यारा है ये।।
                                                            दिनेश गौतम

Sunday 16 September 2012

ग़ज़ल


बस इसलिए कि उससे कोई वास्ता नहीं है,
तू हादसे को कहता है हादसा नहीं है।

होती ही जा रही है दिल की दरार गहरी,
इस बात का तुझे क्या कोई पता नहीं है?

इंसानियत से इंसाँ, बनता है देवता भी,
इंसान जो नहीं है, वह देवता नहीं है।

लाखों में एक भी तू, ऐसा मुझे दिखा दे,
अनजान हो जो दुख से, ग़म से भरा नहीं है।

माना कि उससे मेरी कुछ दूरियाँ बढ़ी हैं,
पर दिल ये कह रहा है, वो बेवफा नहीं है।

मुझको न इतना तड़पा, नज़रें न फेर मुझसे,
माना भला नहीं पर, ये दिल बुरा नहीं है।

तेरी भी मैली चादर, मेरी भी मैली चादर,
इस दाग़ से यहाँ पर, कोई बचा नहीं है।

                                 दिनेश गौतम

Sunday 2 September 2012

बेलूर...

(विगत दिनों अपने कर्नाटक प्रवास के दौरान मुझे ऐतिहासिक स्थल ‘बेलूर‘ के ‘चन्नकेशवा’ मंदिर जाने का अवसर लगा। होयसल सम्राट विष्णुवर्धन द्वारा निर्मित इस मंदिर में अपूर्व सुंदरी रानी शांतला (जो प्रसिद्ध नृत्यांगना थी) तथा अन्य सुंदर नर्तकियों की जीवंत प्रतिमाएं मन को मोह लेती हैं। मंदिर पर लिखी मेरी एक कविता आपके लिए प्रस्तुत है।)

वर्तमान के वक्ष पर
अतीत की धड़कन है बेलूर,
विलक्षण हो तुम
चन
्नकेशवा !

अतीत की
सुनहरी स्मृतियों के सहारे
उतर आते हो तुम
आँखों के रास्ते
मन की गहराइयों तक...

सदियों पुरानी
दीवारों पर
जड़ी हुई हैं
प्रतिमाएँ,
जैसे मार दिया हो मंतर
किसी जादूगर ने
और नृत्यांगनाएँ
बदल गई हों
प्रस्तर-प्रतिमाओं में।

अतीत की सीढि़यों पर
उतरते चले जाते हैं हम,
आँखों में उतर आती है
अपूर्व सुंदरी
रानी ‘शांतला’।

बजने लगते हैं घुंघरू,
मृदंग और वीणा,
शुरू हो जाता है
नृत्य-गान।
प्रांगण बदल जाता है
नृत्यशाला में।

हवाओं में
घुलने लगता है
सम्मोहन,
धड़कने लगते हैं
जाने कितने
विष्णुवर्धनों के हृदय।

नृत्यलीन है शांतला
नाच रही हो जैसे
स्वयं क्षणप्रभा,
कौंध रही है आँखों में
शांतला की द्युति।

देह का भूगोल
बढ़ा देता है ताप,
गोलाइयों, वक्रों
और
ढलानों से होकर
तय करने लगते हैं लोग
भूगोल से ज्यामिति तक की दूरियाँ
त्रिभंगी मुद्राएँ
सिखाती हैं
ज्यामिति के पाठ।
कई कोण बन रहे हैं
देह भंगिमाओं से।

इधर...
गुरुत्व का पाठ पढ़ाते
बिना किसी सहारे के खड़े
स्तंभ के पास खड़े हैं लोग
चकित है विज्ञान।

छूट जाता है सहसा
किसी सुंदरी के हाथ से दर्पण
उड़ जाता है
किसी शुकधारिणी के हाथों से शुक,
जब तन जाती हैं
किसी कमान की तरह
शांतला की भौंहें,
ठगे हुए से
रह जाते हैं सभी।

रूपगर्विता शांतला का
भृकुटि-विलास
ढहा देता है
जाने कितने विष्णुवर्धनों के हृदय।
गर्वान्नत भौंहें
चुनौतियाँ देती हैं
सौंदर्य के
सारे प्रतिमानों को।
शांतला की केशराशि में
उलझ कर रह जाते हैं
जाने कितने
सौण्दर्योपासक।

सुनो शांतला!
क्या पढ़े कोई
चन्नकेशवा में आकर?
भूगोल, इतिहास, विज्ञान
या सौण्दर्यशास्त्र ?
अप्रतिम हो तुम शांतला!
और
अद्भुत हो तुम
चन्नकेशवा!
सचमुच अद्भुत !!!
- दिनेश गौतम.

Saturday 14 July 2012

क्या होगा?


क्या होगा भगवान, आखिर क्या होगा?
यहाँ सुमन के अश्रु ,शूल के चेहरे पर मुस्कान ...।
आखिर क्या होगा?

अन्यायी के आँगन, खिलती जाती रोज़ बहारें,
और न्याय की आशा में सच फिरता मारे मारे।
जीना दूभर सद्विचार का, चिंतन बुरा पनपता,
हर मुख आज त्याग लज्जा को, तम की माला जपता।
अपने हाथों स्वयं मनुजता करे गरल का पान ...।
आखिर क्या होगा?

यहाँ दीप का गला दबाएँ, मिलकर रोज अँधेरे,
अट्टहास करता कालापन, उजियारे को घेरे,
खूब जमाए रहते महफिल, पापी और लुटेरे,
दुराचार के बादल होते जाते और घनेरे।
संकट में फँसते जाते हैं, सदाचार के प्राण ...।
आखिर क्या होगा?

स्वाभिमान का मान हुआ कम, धन की बढ़ी प्रतिष्ठा,
अपने स्वारथ की खातिर बदली लोगों ने निष्ठा।
लाज बेची दिख जाती है यहाँ कहीं पर नारी,
और कहीं सिसकी भरती है, अबला की लाचारी।
बिक जाता है यहाँ टके में नारी का सम्मान ...।
आखिर क्या होगा?

रक्त माँगता देश तुम्हारा, जाग सको तो जागो,
अपनी कुंठाओं को जीतो, दुःव्यसनों को त्यागो।
अपने कंधे पर जननी का, सारा बोझ उठा लो,
मातृभूमि की चिंता कर लो, उसको ज़रा सँभालो।
मिल पाएगी क्या जननी को, वही पुरानी शान...?
आखिर क्या होगा?

Sunday 1 July 2012

वर्षा के दोहे...


ताल-तलैया फिर भरे, नदियों में है बाढ़,
मेंढक टर्राने लगे,  फिर आया आषाढ़।

पत्ते- पत्ते धुल गए,वन की है क्या बात,
वर्षा आकर दे गई, एक नई सौगात।

बौराए बादल फिरें, नभ के नापें छोर,
धरती से आकाश तक, गर्जन का ही शोर।

इस ऋतु ने तो बदल दिया, धरती का भूगोल,,
थल बदला जल में यहाँ, नभ का रूप न बोल।

‘कजरी’, ‘झूला’, सावनी, और ‘मेघ मल्हार’,
गाने के दिन आ गए, फिर से पड़ी फुहार।

काले- काले मेघ का लगता ऐसा वेश,
जैसे गोरी फिर रही, खोले श्यामल केश।

मेघ मचाने लग गए, इस पर खूब बवाल,
‘‘रिमझिम बूँदों ने छुए, क्यूँ फूलों के गाल’’।

टूटी बिजली क्रोध में, धरती पर कल शाम,
‘‘बहुत सताया ग्रीष्म में, अब भुगतो अंजाम’’।

रंगमंच में बदल गया, आषाढ़ी आकाश,
बिजली ,बादल ,बूँद को, मिली भूमिका खास।

टपक-टपक कर झोंपड़ी, हुई रात हलकान,
महल ऊँघते ही रहे, बारिश से अनजान।

गिरें न दीवारें कहीं, ढहे न कोई मकान,
इस वर्षा में निर्धन की, रक्षा कर भगवान !
                                                         
                                       - दिनेश गौतम

Sunday 10 June 2012

तुम्हारे बदल जाने के बाद...


तब
जब कागज़ पर
उतर नहीं सका था कुछ,
मैने हाथों में
थाम ली थी बाँसुरी
और
देर तक
घोलता रहा था
दिल का दर्द
हवाओं में।

तुम्हारे
बदल जाने का
गीत था वह।
मेरे जज़्बात
तार-तार होकर
उड़ने लगे थे फि़ज़ाओं में
और पूरे माहौल में
एक खामोश ग़मगीनी छा गई थी।
जाने कब तक
जेठ की नदिया सी
दो पतली धारें
मेरी आँखों की कोरों से निकल
उतरती रही थीं नीचे।
चाँदनी
भीगकर भारी हो चली थी,
और
रात की सफेदी में
एक कि़स्म का
बहाव था धीमा-धीमा
पर मन के भीतर
उतना ही ठहराव,
जड़वत था सब कुछ
मन के भीतर ।
न कहीं कंपन,
न कोई हलचल
पर फिर भी
इर्द गिर्द  उसके
जाने क्योँ
मंडराती रही थीं
भावनाएँ
तुम्हारे लिए
बहुत सा प्यार लेकर।
तुम्हारे बदल जाने के बाद भी।

                                          -  दिनेश गौतम

Sunday 20 May 2012

रात...


कैसी ये मतवाली रात,
चाँद सितारों वाली रात।

कितने राज़ छुपाए बैठी,
बनकर भोली-भाली रात।

कभी लगी ये अमृत जैसी,
कभी ज़हर की प्याली रात।

बिलख रहे हैं भूखे बच्चे,
माँ की खातिर काली रात।

बँगला-गाड़ी पास है जिनके,
उनके लिए दीवाली रात।

लहू जिगर का माँगे हमसे,
बनकर एक सवाली रात।

फुटपाथों पर जब हम सोए,
लगी हमें भी गाली रात।

मत पूछो दिन कैसे बीता,
कैसे, कहाँ बिता ली रात?

दुख ने दिन को गोद ले लिया,
पीड़ाओं ने पाली रात।

दिवस बनाया पर न भरा मन,
‘उसने’ खूब बना ली रात।

                                    - दिनेश गौतम

Tuesday 15 May 2012

भीगता रहा मन...


(आज पेश है मेरे काव्य संग्रह ‘सपनों के हंस’ से एक छंदमुक्त प्रेम कविता।)

रात
तुम्हारी कल्पना
बर्फ की तरह
पिघलती रही
सपनों की पहाडि़यों से,
निःशब्द
बहती रही
एक हिम नदी
मन के
इस छोर से उस छोर तक
और
धीमे-धीमे
भीगता रहा मन
सारी रात।
                   - दिनेश गौतम

Monday 30 April 2012

इधर घोटाला है...


इधर घोटाला है, देखिए उधर घोटाला है,
राजनीति के दलदल में सबका मुँह काला है।

बातें हैं आदर्शों की पर करनी बिल्कुल उल्टी,
उनका यह अंदाज़ सभी का देखा- भाला है।

जो आता है फँस जाता है, स्वारथ के धागे में,
राजनीति है या कोई मकड़ी का जाला है।

पंचम सुर में झूठा गाए, बढ़चढ़कर इतराए,
सच के मुँह पर लगा हुआ अब तक इक ताला है।

गाँधी तू भी रोता होगा देश की इस हालत पर,
आखिर इसके सपनों को तूने भी पाला है।

सच कहने की सज़ा अगर दो, हँसकर मैं सह लूँगा
युग का हर सुकरात ज़हर का पीता प्याला है।
                                               - दिनेश गौतम

Thursday 19 April 2012

इक दिया जलता रहा...



याद के शीशे  में   चेहरा,    तेरा ही ढलता रहा,
मैं कि जैसे  पाँव नंगे,     आग पर चलता रहा।

जानता था वह नहीं   आएगा फिर से लौटकर,
फिर भी झूठी आस लेकर, खुद को मैं छलता रहा।

तेरी यादों ने बनाया इक अजब सा कारवाँ,
जब खयालों का मेरे  इक काफिला चलता रहा।

यूँ तो टूटा ही किए थे    ख़्वाब मेरे फिर भला,
एक सपना तुझको लेकर , दिल में क्यूँ पलता रहा?

रोक पाया वह न मुझको, उसको है  इसका मलाल,
आँसुओं के घूँट पीकर     हाथ बस मलता रहा।

मानता हूँ तेरे बँगले      में  ग़ज़ब थी रौशनी,
पर मेरे आँगन में भी तो,   इक दिया जलता रहा।
                                               - दिनेश गौतम

Wednesday 11 April 2012

ग़ज़ल - देवता नहीं है...


बस इसलिए कि तेरा कोई वास्ता नहीं है,
तू हादसे को कहता है, हादसा नहीं है।

होती ही जा रही है, दिल की दरार गहरी,
इस बात का तुझे क्या, कोई पता नहीं है?

इंसानियत से इन्सां, बनता है देवता भी,
इंसान जो नहीं है, वह देवता नहीं है।

लाखों में एक भी तू, ऐसा मुझे बता दे,
अनजान हो जो दुख से, ग़म से भरा नहीं है।

माना कि उससे मेरी, कुछ दूरियाँ बढ़ी हैं,
पर दिल ये कह रहा है, वो बेवफा नहीं है।

मुझको न इतना तड़पा, नज़रें न फेर मुझसे,
माना भला नहीं पर, ये दिल बुरा नहीं है।

तेरी भी मैली चादर, मेरी भी मैली चादर,
इस दाग़ से यहाँ पर, कोई बचा नहीं है।
                                                    - दिनेश गौतम.

Sunday 1 April 2012

तेरा प्यार नहीं मिल पाया।

कुछ युवा साथियों के द्वारा लगातार मेरी प्रेम कविताओं को ब्लाग पर पोस्ट करने का आग्रह किया जा रहा है उनके लिए प्रस्तुत है मेरी यह ‘गीतिका’, आप भी आनंद लें।

सब कुछ मिला यहाँ पर मुझको, बिन माँगे यूँ अनायास ही
लेकिन मेरे पागल मन को, तेरा प्यार नहीं मिल पाया।

तेरे नयन की ‘कारा’ होती, हो जाता मन बंदी मेरा,
हाय कि मुझको ऐसा कोई, कारागार नहीं मिल पाया।

तेरे चरण चूमकर मेरा आँगन उपकृत हो जाता पर,
मेरे आँगन की मिट्टी को, यह उपहार नहीं मिल पाया।

पास खड़े थे हम - तुम दोनों, एक मौन था फिर भी लेकिन
मन की बात तुम्हें मैं कहता, वह अधिकार नहीं मिल पाया।

स्वप्न बेचारे रहे अधूरे- ‘मिट्टी के अधबने खिलौने’,
उनको तेरे सुघड़ हाथ से , रूपाकार नहीं मिल पाया।

रंग भरे इस जग ने सबको, बाहों में भर - भर कर भेंटा,
मैं शापित हूँ शायद मुझको, यह संसार नहीं मिल पाया।
- दिनेश गौतम

Saturday 24 March 2012

कैसी लाचारी

मेरे काव्य ‘संग्रह सपनों के हंस’ से एक गीत आज आपकी सेवा में प्रस्तुत है।

मर-मर कर जीने की कैसी लाचारी ?,
छोटे से इस दिल को मिले दर्द भारी...।

धुँधले से दिन हैं अब
काली है रातें ,
अंगारे दे गई हैं
अब की बरसातें,
आँगन में गाजों का,गिरना है जारी...।

मन की इस बगिया में
झरे हुए फूल हैं,
कलियों से बिंधे हुए
निष्ठुर से शूल हैं,
मुरझाई लगती है,सपनों की क्यारी...।

नई-नई पोथी के
पृ्ष्ठ कई जर्जर हैं,
तार-तार सप्तक हैं,
थके-थके से स्वर हैं,
बस गई हैं तानों में,पीड़ाएँ सारी...।

दूर तक मरुस्थल की
फैली वीरानी है,
मन के मृगछौने के
सपनों में पानी है।
भटक रही हिरनी भी, तृष्णा की मारी...।

रतिया की सिसकी है,
दिवस की व्यथाएँ हैं,
ठगे हुए सपनों की
अनगिन कथाएँ हैं।
दुनिया में जीने की, इतनी तैयारी...।

- दिनेश गौतम

Tuesday 13 March 2012

ग़ज़ल

किस तरह से दब गए हैं स्वर यहाँ,
नोंच कर फेंके गए हैं पर यहाँ।

दाँत के नीचे दबेंगी उँगलियाँ,
है उगी सरसों हथेली पर यहाँ।

'टोपियाँ' कुछ खुश दिखीं इस बात पर,
कुछ 'किताबें' बन गईं अनुचर यहाँ।

धीमे-धीमे भीगता है मन कहीं,
रिस रही है प्यार की गागर यहाँ।

मेमना भारी न पड़ जाए कहीं,
शेर को अब लग रहा है डर यहाँ।

एक दिन गूँगी ज़ुबानें गाएँगी,
बात फैली है यही घर-घर यहाँ।

तन रही हैं धीरे -धीरे मुट्ठियाँ,
मुट्ठियों में बंद हैं पत्थर यहाँ

दिनेश गौतम

Sunday 4 March 2012

आज सिर्फ श्रृंगार लिखूँगा...

कलम मेरी हो जा तू सजनी
आज सिर्फ श्रृंगार लिखूँगा।
तेरा झूमर, तेरी पायल,
तेरे गले का हार लिखूँगा।

तेरा हँसना, तेरा रोना,
तेरा मिलना, तेरा खोना।
तेरा जूड़ा, तेरी कलाई,
तूने जो बातें बतियाईं,
उन पर सौ-सौ बार लिखूँगा।...

प्याले सी अँखियाँ कजरारी,
गजब नशीली देह तुम्हारी।
आँखें तुम्हें न पीने पातीं,
प्यास अधूरी फिर रह जाती
इन आँखों की गहराई में
भरा है कितना प्यार लिखूँगा।...

कोयल सी तानों पर तेरे,
देते ध्यान कान क्यूँ मेरे ,
साँसों का संगीत तुम्हारा,
कैसे लगता मुझको प्यारा
आज तुम्हारी हर धड़कन पर
हृदय के उद्गार लिखूँगा।...

कजरारी आँखें हैं स्वप्निल,
तेरे गालों पर सुंदर तिल,
तेरे रूप का कायल होके
मंत्रमुग्ध यह जगत विलोके
तेरे इसी रूप पर मैं भी
अपने आज विचार लिखूँगा।...
- दिनेश गौतम

Monday 27 February 2012

वह मसीहा हो गया...

आँधियों के बीच फँसकर वह कहीं पर खो गया,
कुछ नहीं जब बन सका तो वह मसीहा हो गया।

हम समझते थे मुसीबत में बचा लेगा हमें,
चीखते ही हम रहे वह ओढ़कर मुँह सो गया।

देखने में था भला वह, इक फरिश्ते की तरह,
पर अँधेरा फैलते ही एक शैताँ हो गया।

लौटकर आया नहीं वो लाख कोशिश की मग़र,
दिल की नगरी छोड़कर, दिल से निकलकर जो गया।

रेत के थे कुछ घरौंदे ख्वाब मेरे क्या कहूँ,
वक्त का बेदिल समंदर आज जिनको धो गया।

दर्द इतने हो गए हैं, औ ज़रा सी जि़ंदगी,
जिसने भी किस्सा सुना बस चार आँसू रो गया।

- दिनेश गौतम

Tuesday 21 February 2012

उनकी क्या है बात....

उनकी क्या है बात, वे स्वर्णिम शिखर बनकर रहेंगे,
हम तो हैं बेबस बेचारे, नींव के पत्थर रहेंगे।

उनकी आँखें की चमक हीरों से बढ़ती जाएगी,
और अपने ये नयन तो, अश्रुओं से तर रहेंगे।

तितलियों से बोल दो, इस बाग में न यूँ फिरें,
एक दिन वरना उन्हीं के, कुछ नुचे से पर रहेंगे।

लाख रोकें हम शलभ को दीप की लौ पर न जा,
प्यार पागलपन है ऐसा, वे तो बस जलकर रहेंगे।

नफरतों की वो इमारत अब ढहा दी जाएगी,
इस नगर में तो हमारे, प्यार के ही घर रहेंगे।

देखना तुम जुल्म के आगे झुकी सब गर्दनें,
एक मेरा, इक तुम्हारा दो ही ऊँचे सर रहेंगे।

ये अजब है बात, जिनको चाहिए न हों वहाँ,
वे ही लेकिन उस जगह पर, देखना अक्सर रहेंगे।

खो चुके हैं जो चमक, वे दिख रहे बाज़ार में,
पर असल में हैं जो मोती, सीप के अंदर रहेंगे।
- दिनेश गौतम

Sunday 12 February 2012

उतरा है धरती पर फागुन अभिराम...

उतरा है धरती पर फागुन अभिराम,
कोमल है दोपहरी, शीतल है शाम,

लहरों पर तैर रहे, झरे हुए पात,
नदिया को भा गई है मौसम की बात,
बगिया ने सौंपे हैं नए-नए फूल,
उड़-उड़ है नाच रही राहों पर धूल,
हवा लिख रही है आज पत्तों पर नाम...।

टेसू पर नाच रही प्यारी सी अरुणाई,
कोयल की कूकों से गूँजी है अमराई,
लाज भरी कलियों ने झाँका है घूँघट से,
उभरी है कोई हँसी, कहीं किसी पनघट से
सूरज लो निकला उस फुनगी को थाम...।

गुनगुनाते भँवरे अब निकले हैं टोली में,
रस भर-भर आया है चिडि़यों की बोली में,
चाँदी ज्यों बहती है , हँसते से झरनों में,
चमक रहे हैं पत्ते सूरज की किरनों में,
हरियाई है इमली, बौराया आम...।

शाखों में पंछी अब चहक-चहक उठते हैं,
उपवन के कोने अब महक-महक उठते हैं,
मौसम के मंतर से तन-मन फगुनाया है,
बहक-बहक जाएँ कदम क्या खुमार छाया है,
छलक-छलक जाते हैं हाथों से जाम...।
- दिनेश गौतम

Thursday 9 February 2012

फागुनी दोहे

फागुन का आना हुआ , गए सभी दुख भूल ,
कुंजन कूकी कोकिला, उपवन महके फूल।

चंदा ने चालें चली, फेंका ऐसा पाश,
बँधी चाँदनी चल पड़ी, मौन रहा आकाश।

क्यारी-क्यारी फैल गई मस्तानी सी गंध,
फागुन पढ़ने आ गया मादकता के छंद।

रंग से भीगी देह ने खोला है ये राज,
टहनी ज्यों कचनार की भीग गई हो आज।

चाौपालों में गूँजते लगते ऐसे फाग,
छेड़ दिया ज्यों काम ने कोई मादक राग।

दावानल सा देखकर भीत हुआ आकाश
जब टेसू पर उतर गया जंगल में मधुमास।
- दिनेश गौतम

Tuesday 7 February 2012

फागुनी दोहे

फागुन का आना हुआ, गए सभी दुख भूल ,
कुंजन कूकी कोकिला, उपवन महके फूल।

चंदा ने चालें चली, फेंका ऐसा पाश,
बँधी चाँदनी चल पड़ी, मौन रहा आकाश।

क्यारी-क्यारी फैल गई मस्तानी सी गंध,
फागुन पढ़ने आ गया मादकता के छंद।

रंग से भीगी देह ने खोला है ये राज,
टहनी ज्यों कचनार की भीग गई हो आज।


चाौपालों में गूँजते लगते ऐसे फाग,
छेड़ दिया ज्यों काम ने कोई मादक राग।

दावानल सा देखकर भीत हुआ आकाश
जब टेसू पर उतर गया जंगल में मधुमास।
- दिनेश गौतम

Monday 30 January 2012

फागुन एक चित्रगीत...

लौट आया फिर से लो मदमाता फागुन,
भौंरों की गुनगुन में कुछ गाता फागुन।

फूलों से लदी हुई शाख मुस्कुराती है,
हवा के झकोरों से झूम-झूम जाती है।
कलियों की पंखुरियाँ हौले से खुलती हैं,
शबनम की कुछ बूँदें पत्तों पर ढुलती हैं।
बूँदों में शबनम की, कुछ गाता फागुन ...।

नदिया की कल-कल में, एक नया गीत है,
झरनों के झर-झर में कोई संगीत है।
इक मीठी तान छेड़ कोयल भी गाती है,
मौसम के गीतों को गाकर सुनाती है,
वन में यूँ सुर-मेले सजवाता फागुन...।

झूमते पलाशों पर मस्ती सी छाई है,
उनके खुश होने की जैसे रुत आई है।
टेसू की टहनी पर आग इक मचलती है,
लगता है फुनगी हर धू-धू कर जलती है।
फूलों में अंगारे भर जाता फागुन...।

काँधे पर खुशबू को लिए हवा बहती है,
रस भीगी बातें वह कानों में कहती है।
तन-मन पर इक खुमार हावी हो जाता है,
मीठी सी एक कसक मन में बो जाता है।
मन के हर कोने को महकाता फागुन ...।

अलसायी गोरी का यौवन मतवाला है,
भरी हुई नस-नस में ज्यों कोई हाला है।
कचनारी देह कोई जादू जगाती है,
नयनों को आमंत्रण बाँट-बाँट जाती है।
गोरी के यौवन में इतराता फागुन...।
- दिनेश गौतम

Saturday 21 January 2012

ग़ज़ल...

दर्द के हाथों खुशी को बेच मत,
अपने होठों की हँसी को बेच मत।

क्या लगाएगा भला कीमत कोई,
मान- मर्यादा, खुदी को बेच मत।

बस नुमाइश के लिए बाज़ार में,
अपने तन की सादगी को बेच मत।

मौत की राहें न चुन अपने लिए,
प्यार की इस जिंदगी को बेच मत।

बस अँधेरा ही अँधेरा पाएगा,
इस तरह तू रौशनी को बेच मत।

बेमुरव्वत इस ज़माने के लिए,
अपनी आँखों की नमी को बेच मत।

आलिमों में नाम होगा एक दिन,
इल्म की इस तिश्नगी को बेच मत।

- दिनेश गौतम