घना अंधेरा है अब कोई दीप जलाना होगा,
दूर सवेरा है अब कोई दीप जलाना होगा।
कलह - क्लेश की ज्वाला जलती, दिखती है घर-घर में,
जाग रही शैतानी ताकत लोगों के अंतर में।
तम ने घेरा है अब कोई दीप जलाना होगा...
अंतःद्वंद्वों के बीहड़ में भटक रहा हर मन है,
एक व्यक्ति के कई रूप हैं, दुहरा हर जीवन है।
अजब ये फेरा है अब कोई दीप जलाना होगा।....
खंडित एक पत्थर रक्खा है, मंदिर के कोने में,
संशय सा होता है अब तो ईश्वर के होने में।
संदेह घनेरा है अब कोई दीप जलाना होगा।...
अपने कंधे पर हों जैसे अपना ही शव लादे,
लुटे - लुटे से घूम रहे हम पीड़ा के शहजा़दे।
ये वक्त लुटेरा है अब कोइ दीप जलाना होगा।...
सपनों की उजड़ी बस्ती में भटकें हम दीवाने,
ढही हुई है दरो-दीवारें सभी तरफ वीराने।
उजड़ा ये डेरा है अब कोई दीप जलाना होगा।...
- दिनेश गौतम